
2006 मुंबई ट्रेन ब्लास्ट केस में सभी 12 आरोपी बरी: बॉम्बे हाईकोर्ट ने सबूतों के अभाव में रद्द की फांसी और उम्रकैद की सजा
मुंबई। 11 जुलाई 2006 की शाम मुंबई शहर की रफ्तार थम गई थी, जब लोकल ट्रेनों में सिलसिलेवार सात धमाके हुए थे। इस भयावह घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया था। करीब 200 से अधिक लोग मारे गए और 700 से अधिक घायल हुए। इस मामले में अब बॉम्बे हाईकोर्ट ने 19 साल बाद एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। कोर्ट ने सबूतों के अभाव में सभी 12 दोषियों को बरी कर दिया है।
फैसले में कहा गया- पर्याप्त सबूत नहीं
बॉम्बे हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ आरोप साबित करने में नाकाम रहा। अदालत ने विशेष मकोका (MCOCA) कोर्ट द्वारा 2015 में सुनाई गई फांसी और उम्रकैद की सजा को खारिज कर दिया। हाईकोर्ट के मुताबिक, न तो विस्फोटक सामग्री, और न ही किसी ठोस साक्ष्य से यह साबित हो सका कि बेंच पर बैठे इन 12 लोगों का सीधा संबंध इस आतंकी साजिश से था।
2015 में 5 को मिली थी फांसी, 7 को उम्रकैद
मुंबई की विशेष मकोका अदालत ने सितंबर 2015 में इस केस का फैसला सुनाते हुए 12 आरोपियों को दोषी ठहराया था। इनमें से 5 को फांसी और 7 को उम्रकैद की सजा सुनाई गई थी। उस समय कोर्ट ने माना था कि ये सभी आरोपी प्रतिबंधित आतंकी संगठन सिमी (SIMI) और लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े हुए थे और उन्होंने पाकिस्तान में ट्रेनिंग ली थी।
हाईकोर्ट के दो जजों की बेंच का फैसला
बॉम्बे हाईकोर्ट की दो जजों की खंडपीठ — जस्टिस रेवती मोहिते डेरे और जस्टिस शरद जमेार की बेंच ने यह फैसला सुनाया। फैसले में कहा गया कि अभियोजन द्वारा पेश किए गए गवाहों की गवाही विरोधाभासी थी और कई पहलुओं पर सवाल खड़े करती है।
“संदेह के लाभ” के आधार पर बरी
कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि “अपराध सिद्ध करने के लिए केवल संदेह पर्याप्त नहीं होता, बल्कि ठोस और विश्वसनीय सबूत की जरूरत होती है।” अदालत ने यह भी कहा कि अभियोजन द्वारा पेश किए गए साक्ष्यों में कई खामियां थीं, जिनका लाभ आरोपियों को मिला।
मामले का इतिहास
11 जुलाई 2006 की शाम को करीब 6:24 बजे से 6:35 बजे के बीच मुंबई की अलग-अलग लोकल ट्रेनों में 7 सिलसिलेवार धमाके हुए। बोरिवली से चर्चगेट की ओर जा रही फास्ट लोकल ट्रेनों को निशाना बनाया गया। विस्फोटकों को प्रेशर कुकर में भरकर ट्रेनों में रखा गया था। यह विस्फोट इतना भयावह था कि शवों की पहचान तक करना मुश्किल हो गया था।
जांच एजेंसियों पर उठे सवाल
इस फैसले के बाद अब जांच एजेंसियों की भूमिका पर भी सवाल उठने लगे हैं। मुंबई पुलिस, एटीएस और अन्य जांच एजेंसियों ने जिन सबूतों के आधार पर आरोपियों को पकड़ा, वही अब अदालत में टिक नहीं पाए। कई मानवाधिकार संगठनों ने पहले भी इस केस की जांच में खामियां और जबरन कबूलनामे का मुद्दा उठाया था।
परिवारों का दर्द और न्याय की मांग
फैसले के बाद पीड़ितों के परिजन सकते में हैं। कई परिजनों ने इसे ‘न्याय में देरी नहीं बल्कि न्याय से इनकार’ बताया। उनका कहना है कि अगर ये लोग दोषी नहीं हैं, तो असली गुनहगार कौन हैं? सरकार और एजेंसियों को इसका जवाब देना चाहिए। वहीं, कुछ परिजनों ने फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाने की मांग भी उठाई है।
बरी हुए आरोपियों के वकीलों की प्रतिक्रिया
बचाव पक्ष के वकीलों ने कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है। उन्होंने कहा कि उनके मुवक्किल 19 साल से जेल में हैं, और यह फैसला न्याय की जीत है। अगर कोई सबूत नहीं है, तो किसी को सालों तक सलाखों के पीछे रखना संविधान और मानवाधिकार दोनों के खिलाफ है।
सरकार की अगली रणनीति?
इस मामले में अब राज्य सरकार और जांच एजेंसियों की अगली कार्रवाई पर निगाहें टिकी हैं। क्या वे सुप्रीम कोर्ट में अपील करेंगे या फिर इस फैसले को स्वीकार करेंगे? महाराष्ट्र के गृह विभाग ने कहा है कि वह फैसले की पूरी कॉपी का अध्ययन करने के बाद ही अगला कदम तय करेगा।
न्याय प्रणाली पर फिर बहस शुरू
यह मामला एक बार फिर भारत की न्यायिक प्रणाली पर बहस छेड़ रहा है। जहां एक ओर न्याय मिलने में देरी का सवाल उठता है, वहीं दूसरी ओर यह भी देखा जा रहा है कि बिना पुख्ता सबूतों के सजा देना किस हद तक न्यायसंगत है।
मुंबई ट्रेन ब्लास्ट केस में आया यह फैसला सिर्फ 12 लोगों की रिहाई नहीं है, बल्कि यह देश की न्याय प्रणाली की प्रक्रिया, जांच एजेंसियों की कार्यशैली और सबूतों की अहमियत पर गंभीर प्रश्न खड़ा करता है। पीड़ितों को न्याय कब मिलेगा और असली दोषियों का पर्दाफाश कब होगा — यह अब भी अनुत्तरित सवाल है, जिसका उत्तर आने वाला समय ही देगा।