
तमिलनाडु में शिक्षा संकट: 1,000 से ज्यादा स्कूलों में एक भी छात्र नामांकित नहीं।
तमिलनाडु के शिक्षा क्षेत्र में एक गंभीर और चौंकाने वाली तस्वीर सामने आई है। हाल ही में जारी सरकारी आंकड़ों के अनुसार, राज्य के 1,000 से अधिक सरकारी और अनुदानित स्कूलों में एक भी छात्र नामांकित नहीं है। यह स्थिति न केवल शिक्षा व्यवस्था पर सवाल खड़े करती है, बल्कि ग्रामीण और पिछड़े इलाकों में शिक्षा के भविष्य को लेकर भी चिंता बढ़ाती है।
खाली पड़े स्कूल, बंद होने की कगार पर शिक्षा केंद्र
शिक्षा विभाग के अनुसार, ये स्कूल भौगोलिक रूप से अलग-अलग जिलों में फैले हुए हैं। अधिकांश स्कूल ग्रामीण क्षेत्रों में हैं, जहां जनसंख्या घटने, पलायन, और निजी स्कूलों की ओर झुकाव के कारण सरकारी स्कूलों में छात्रों की संख्या लगातार घट रही है। नतीजा यह है कि कई स्कूलों में एक भी बच्चा पढ़ाई के लिए नहीं आता।
राज्य में कुल सरकारी और अनुदानित स्कूलों की संख्या लाखों में है, लेकिन यह तथ्य कि इनमें से 1,000 से ज्यादा में कोई भी छात्र नहीं है, बेहद चिंताजनक है। विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर यह रुझान जारी रहा तो आने वाले वर्षों में कई स्कूलों को स्थायी रूप से बंद करना पड़ सकता है।
कारण: बदलती प्राथमिकताएं और पलायन
इस संकट के पीछे कई वजहें बताई जा रही हैं।
ग्रामीण पलायन: रोजगार, बेहतर जीवन और शिक्षा के लिए लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं, जिससे गांवों में बच्चों की संख्या घट रही है।
निजी शिक्षा की ओर झुकाव: माता-पिता सरकारी स्कूलों की तुलना में निजी स्कूलों को ज्यादा तरजीह देने लगे हैं, भले ही फीस ज्यादा हो। इसका कारण है बेहतर सुविधाएं, अंग्रेजी माध्यम और आधुनिक शिक्षण पद्धति।
इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी: कई सरकारी स्कूलों में पर्याप्त शिक्षक, साफ-सफाई, प्रयोगशालाएं, पुस्तकालय, और खेल के साधनों की कमी है।
गुणवत्ता पर सवाल: कुछ सरकारी स्कूलों में शिक्षण का स्तर कम होने और परिणाम कमजोर रहने से माता-पिता का भरोसा डगमगाया है।
शिक्षकों पर असर
इन स्कूलों में कार्यरत कई शिक्षक अब प्रशासनिक कार्यों में लगा दिए गए हैं या उन्हें अन्य स्कूलों में ट्रांसफर किया जा रहा है। कुछ मामलों में, बिना छात्रों के भी स्कूल भवन और स्टाफ मौजूद है, जिससे सरकारी संसाधनों पर भारी बोझ पड़ रहा है।
सरकार की चिंता और कदम
तमिलनाडु सरकार ने इस संकट से निपटने के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं।
स्कूलों का विलय: पास-पड़ोस के खाली स्कूलों को बड़े स्कूलों में मर्ज किया जा रहा है, ताकि संसाधनों का बेहतर उपयोग हो सके।
नामांकन अभियान: ‘एडमिशन ड्राइव’ के तहत गांव-गांव जाकर बच्चों का नामांकन बढ़ाने की कोशिश की जा रही है।
इंफ्रास्ट्रक्चर सुधार: कुछ जिलों में डिजिटल क्लासरूम, स्मार्ट बोर्ड और खेल-कूद की सुविधाएं दी जा रही हैं।
मिड-डे मील और स्कॉलरशिप योजनाएं: बच्चों को स्कूल में लाने के लिए पोषण आहार और छात्रवृत्ति योजनाओं को और आकर्षक बनाया जा रहा है।
विशेषज्ञों की राय
शिक्षा विशेषज्ञ मानते हैं कि केवल स्कूल खोलना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि वहां गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, आधुनिक सुविधाएं और स्थानीय समुदाय का भरोसा भी जरूरी है। उनका कहना है कि यदि शिक्षा को स्थानीय भाषा और संस्कृति से जोड़कर, तकनीक और कौशल आधारित बनाया जाए तो बच्चों की भागीदारी बढ़ सकती है।
जमीनी हकीकत
ग्रामीण इलाकों में जब टीमों ने दौरा किया, तो पता चला कि कुछ स्कूलों में पिछले दो साल से एक भी बच्चा नामांकित नहीं हुआ है। स्कूल भवन जर्जर हो चुके हैं, मैदान में घास उग आई है और कक्षाएं बंद पड़ी हैं। कई गांवों में लोग बच्चों को पास के कस्बों के निजी स्कूलों में भेज रहे हैं, चाहे इसके लिए रोज लंबी दूरी क्यों न तय करनी पड़े।
अभिभावकों की बात
एक ग्रामीण महिला ने बताया, “हमारे गांव के स्कूल में न टीचर समय पर आते हैं, न पढ़ाई ठीक से होती है। इसलिए हमने बच्चे को 15 किलोमीटर दूर एक निजी स्कूल में भेज दिया। फीस ज्यादा है, लेकिन पढ़ाई अच्छी है।”
आगे की चुनौती
अगर समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए तो यह संकट और गहराएगा। तमिलनाडु, जो कभी शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी राज्यों में गिना जाता था, वहां सरकारी स्कूलों का खाली होना न केवल शिक्षा का नुकसान है, बल्कि यह सामाजिक असमानता को भी बढ़ा सकता है।
तमिलनाडु के 1,000 से ज्यादा स्कूलों में एक भी छात्र का न होना इस बात का संकेत है कि सरकारी शिक्षा व्यवस्था में सुधार की बेहद जरूरत है। सरकार, स्थानीय निकायों और समाज को मिलकर इस चुनौती से निपटना होगा। शिक्षा सिर्फ किताबों तक सीमित नहीं, बल्कि यह आने वाली पीढ़ियों का भविष्य तय करती है। अगर आज इस पर गंभीरता से काम नहीं किया गया तो आने वाला कल और कठिन हो सकता है।