
नई दिल्ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी दिवंगत मां हीराबेन मोदी की छवि धूमिल करने के उद्देश्य से बनाए गए एक डीपफेक वीडियो को लेकर दिल्ली पुलिस ने बड़ी कार्रवाई करते हुए एफआईआर दर्ज की है। भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की शिकायत पर नॉर्थ एवेन्यू थाने में कांग्रेस और कांग्रेस आईटी सेल के खिलाफ मामला दर्ज किया गया है। पुलिस की प्रारंभिक जांच में वीडियो को गलत इरादे से तैयार कर जनता में भ्रम फैलाने का प्रयास माना जा रहा है।
यह मामला तब सामने आया जब सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर पीएम मोदी और उनकी मां से संबंधित एक ऐसा वीडियो वायरल हुआ, जिसमें दोनों की छवि को अपमानित करने वाले दृश्यों और संवादों का प्रयोग किया गया। तकनीक के ज़रिए चेहरे और आवाज़ को संपादित कर बनाया गया यह डीपफेक वीडियो तेज़ी से फैलने लगा, जिससे राजनीतिक गलियारों में हलचल मच गई।
डीपफेक क्या है और यह कितना खतरनाक?
डीपफेक (Deepfake) एक तकनीक है जिसमें कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) का उपयोग कर किसी व्यक्ति की छवि और आवाज़ को बदल दिया जाता है। इस तकनीक के माध्यम से किसी भी व्यक्ति का चेहरा या आवाज़ किसी वीडियो में बदलकर ऐसा दृश्य तैयार किया जा सकता है जो वास्तविकता से मेल नहीं खाता। हाल के वर्षों में इस तकनीक का दुरुपयोग करके झूठे वीडियो बनाकर अफवाह फैलाने, चुनावी माहौल प्रभावित करने और लोगों की प्रतिष्ठा नष्ट करने जैसी घटनाएँ बढ़ी हैं।
विशेषज्ञों का कहना है कि डीपफेक वीडियो सत्यता की जाँच में सबसे बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। सोशल मीडिया पर बिना जाँच के साझा होने वाले ऐसे वीडियो समाज में भ्रम और अविश्वास पैदा कर सकते हैं। प्रधानमंत्री जैसे राष्ट्रीय नेता पर इस तरह का हमला लोकतंत्र और सार्वजनिक संवाद की विश्वसनीयता के लिए गंभीर खतरा है।
बीजेपी की प्रतिक्रिया
बीजेपी ने इस मामले में सख्त कदम उठाते हुए नॉर्थ एवेन्यू थाने में कांग्रेस और कांग्रेस आईटी सेल के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई। पार्टी का आरोप है कि विरोधी दलों ने योजनाबद्ध तरीके से पीएम मोदी और उनकी मां की छवि खराब करने का प्रयास किया। बीजेपी नेताओं ने इसे लोकतांत्रिक मर्यादा का उल्लंघन बताया और कहा कि देश की जनता को भ्रमित कर राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश की गई है।
बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, “प्रधानमंत्री देश के सर्वोच्च पद पर हैं। उनकी व्यक्तिगत गरिमा और उनके परिवार का सम्मान हर भारतीय का दायित्व है। जो लोग तकनीक का दुरुपयोग कर राजनीतिक लाभ के लिए झूठ फैलाना चाहते हैं, उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए।”
कांग्रेस का पक्ष
कांग्रेस ने इस मामले में आरोपों से इनकार करते हुए कहा कि वीडियो किसने बनाया और फैलाया, इसकी स्वतंत्र जांच होनी चाहिए। पार्टी का कहना है कि विरोधियों द्वारा फैलाए जा रहे झूठे आरोपों से जनता का ध्यान असली मुद्दों से भटकाने का प्रयास किया जा रहा है। कांग्रेस प्रवक्ताओं ने कहा कि तकनीकी जांच के आधार पर ही दोषियों की पहचान की जानी चाहिए, न कि राजनीतिक प्रतिशोध के तहत कार्रवाई होनी चाहिए।
कांग्रेस आईटी सेल के कुछ सदस्य इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला करार दे रहे हैं, जबकि पार्टी नेतृत्व ने कहा कि झूठे वीडियो का समर्थन नहीं किया जाता।
कानून और सोशल मीडिया कंपनियों की भूमिका
भारत में सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम और भारतीय दंड संहिता के तहत झूठी सूचना फैलाने, आपत्तिजनक सामग्री बनाने और सार्वजनिक शांति भंग करने से संबंधित प्रावधान मौजूद हैं। इसके तहत संबंधित व्यक्तियों और संस्थाओं पर मामला दर्ज किया जा सकता है। पुलिस की एफआईआर में इसी आधार पर कार्रवाई की गई है।
सोशल मीडिया कंपनियाँ भी अब ऐसे मामलों में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं। कई प्लेटफॉर्म्स ने डीपफेक वीडियो पर चेतावनी संदेश, रिपोर्टिंग सुविधा और तथ्य-जांच टूल उपलब्ध कराए हैं। फिर भी, तकनीक की बढ़ती पहुंच और डिजिटल सामग्री की तेज़ी से फैलने की क्षमता के कारण ऐसे मामलों पर सतत निगरानी आवश्यक है।
क्या यह कदम सही है?
इस सवाल का जवाब जटिल है। एक ओर, किसी नेता या उनके परिवार की छवि बिगाड़ने का प्रयास लोकतांत्रिक व्यवस्था में अस्वीकार्य है। ऐसे वीडियो न केवल व्यक्तिगत गरिमा को नुकसान पहुँचाते हैं, बल्कि समाज में अविश्वास और असंतोष भी फैलाते हैं। अतः इस तरह की गतिविधियों पर नियंत्रण और कार्रवाई आवश्यक है।
दूसरी ओर, राजनीतिक विवादों में तथ्य-जाँच का महत्त्व भी उतना ही बड़ा है। यदि बिना पूरी जांच के एफआईआर दर्ज कर दी जाती है तो इसका दुरुपयोग कर असहमति को दबाने का प्रयास भी हो सकता है। इसलिए यह आवश्यक है कि न्यायिक प्रक्रिया पारदर्शी हो और आरोपों की निष्पक्ष जांच की जाए।
विशेषज्ञों की राय
साइबर सुरक्षा विशेषज्ञ डॉ. राजीव मिश्रा कहते हैं, “डीपफेक वीडियो का सबसे बड़ा खतरा यह है कि आम जनता तुरंत उसे सत्य मान लेती है। लोकतांत्रिक समाज में सूचना की विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए ऐसे मामलों पर त्वरित और विधिक कार्रवाई ज़रूरी है। साथ ही, तकनीकी साक्ष्यों की गहराई से जांच भी आवश्यक है।”
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि झूठी खबरें और डीपफेक वीडियो लोगों में डर, नकारात्मकता और अविश्वास पैदा करते हैं। इसलिए मीडिया साक्षरता अभियान और डिजिटल जागरूकता कार्यक्रमों को बढ़ावा देना चाहिए ताकि लोग बिना सोचे-समझे वीडियो साझा न करें।
जनता की प्रतिक्रिया
सामान्य नागरिकों की प्रतिक्रिया भी मिली-जुली है। कुछ लोग इसे आवश्यक कार्रवाई मानते हैं, जबकि अन्य इसे राजनीतिक प्रतिशोध बताते हैं। सोशल मीडिया पर बहस छिड़ गई है कि क्या तकनीक का दुरुपयोग रोकने के लिए और कठोर नियमों की जरूरत है। वहीं कुछ लोग कह रहे हैं कि हर वीडियो पर एफआईआर दर्ज करने से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बाधित हो सकती है।
आगे क्या?
दिल्ली पुलिस ने वीडियो की डिजिटल फॉरेंसिक जांच शुरू कर दी है। जिन खातों से वीडियो वायरल हुआ, उनकी पहचान कर आवश्यक कानूनी कार्रवाई की जाएगी। साथ ही, प्लेटफॉर्म्स से भी सहयोग लिया जा रहा है ताकि वीडियो हटाया जा सके और झूठ फैलाने वाले नेटवर्क की जाँच हो।
इस मामले ने डिजिटल युग में सूचना की विश्वसनीयता और तकनीक के दुरुपयोग को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। आने वाले दिनों में यह देखा जाएगा कि क्या राजनीतिक दल अपनी डिजिटल गतिविधियों को नियंत्रित करते हैं और क्या सरकार इस तरह की घटनाओं के लिए कठोर दिशानिर्देश लाती है।