
पटना। बिहार की राजनीति में जातीय संघर्ष और सामूहिक नरसंहार की घटनाएं लंबे समय तक चर्चा में रहती हैं। ऐसी ही एक घटना साल 2009 में सामने आई थी, जब नीतीश कुमार के शासनकाल में लखीसराय जिले के एक गांव में 14 कुर्मी समुदाय के लोगों की हत्या कर दी गई थी। इस मामले में जांच और सुनवाई के दौरान निचली अदालत ने 10 मुसहरों को फांसी की सजा सुनाई थी, लेकिन हाईकोर्ट ने सबूतों के अभाव में सभी को बरी कर दिया। इस केस ने न सिर्फ बिहार की राजनीति को झकझोर कर रख दिया, बल्कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी सीधे तौर पर धमकी मिली थी।
घटना का पूरा मामला
लखीसराय जिले के एक गांव में यह हत्याकांड हुआ था। बताया जाता है कि कुर्मी और मुसहर समुदाय के बीच जमीनी विवाद और पुरानी रंजिश को लेकर तनाव लंबे समय से बना हुआ था। एक रात हथियारबंद लोगों ने कुर्मी समाज के घरों पर हमला किया और गोलियों की बौछार कर दी। इस हमले में 14 कुर्मी ग्रामीणों की मौत हो गई थी। घटना के बाद पूरे इलाके में दहशत का माहौल बन गया और राज्य की राजनीति गरमा गई।
आरोपियों की गिरफ्तारी और मुकदमा
पुलिस ने दबाव में कार्रवाई करते हुए करीब 10 मुसहर समुदाय के लोगों को गिरफ्तार किया। आरोपियों पर हत्या, साजिश और गैरकानूनी हथियार रखने के मामले दर्ज किए गए। निचली अदालत में सुनवाई के दौरान कई गवाह पेश किए गए और बयान दर्ज किए गए। कोर्ट ने सभी 10 आरोपियों को दोषी मानते हुए फांसी की सजा सुनाई। यह फैसला आते ही पूरे राज्य में इस केस की चर्चा होने लगी।
हाईकोर्ट से बरी
हालांकि, जब मामला पटना हाईकोर्ट पहुंचा तो तस्वीर बदल गई। हाईकोर्ट ने पुलिस की जांच और गवाहों के बयानों पर गंभीर सवाल उठाए। अदालत ने कहा कि हत्या में जिन लोगों को दोषी ठहराया गया था, उनके खिलाफ ठोस सबूत नहीं मिले। नतीजा यह हुआ कि हाईकोर्ट ने सभी 10 आरोपियों को बरी कर दिया। फैसले के बाद मुसहर समुदाय ने राहत की सांस ली, वहीं कुर्मी समाज में आक्रोश फैल गया।
राजनीति में उठे सवाल
इस केस ने बिहार की राजनीति में बड़ा तूफान खड़ा कर दिया था। विपक्षी दलों ने नीतीश सरकार पर सवाल उठाए। कहा गया कि सरकार कानून-व्यवस्था संभालने में नाकाम रही है। साथ ही जातीय हिंसा को रोक पाने में विफल रही। इस दौरान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी धमकी भरे पत्र मिले, जिसमें चेतावनी दी गई कि अगर आरोपियों को सजा दिलाने की कोशिश की गई तो गंभीर नतीजे भुगतने होंगे।
बिहार में जातीय हिंसा की कड़वी हकीकत
यह घटना बिहार में होने वाली जातीय हिंसा और नरसंहारों की लंबी श्रृंखला का हिस्सा थी। इससे पहले भी भोजपुर, औरंगाबाद, जहानाबाद और गया में इसी तरह के नरसंहार सामने आ चुके थे। लखीसराय कांड ने एक बार फिर यह साबित कर दिया कि राज्य में जातीय तनाव किस हद तक गहराई तक मौजूद है।
पीड़ित परिवारों की व्यथा
कुर्मी समाज के पीड़ित परिवार आज भी न्याय की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका कहना है कि उनके घर उजड़ गए, लेकिन दोषियों को सजा नहीं मिली। वहीं मुसहर समाज का कहना है कि उनके समुदाय को बलि का बकरा बनाया गया। बगैर सबूत निर्दोष लोगों को फांसी की सजा दी गई।
हाईकोर्ट के फैसले का असर
हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद राज्य सरकार पर दबाव बढ़ा कि वह कानून-व्यवस्था को मजबूत करे और जातीय संघर्ष को रोकने के लिए ठोस कदम उठाए। नीतीश कुमार की सरकार ने दावा किया कि अपराधियों को किसी भी कीमत पर बख्शा नहीं जाएगा। लेकिन विपक्ष का आरोप था कि इस मामले में सरकार ने पूरी गंभीरता से कार्रवाई नहीं की।
आज भी गूंजता है मामला
भले ही इस घटना को सालों गुजर गए हों, लेकिन लखीसराय का यह नरसंहार आज भी बिहार की राजनीति और समाज में चर्चा का विषय है। यह केस न सिर्फ न्याय व्यवस्था की चुनौतियों को उजागर करता है बल्कि जातीय संघर्ष की गहरी सच्चाई को भी सामने लाता है।