
Bihar: पप्पू यादव कांग्रेस के लिए ‘जरूरी’ या ‘मजबूरी’? बिहार चुनाव से पहले राहुल-खड़गे की दिल्ली बैठक में बुलावे के गहरे राजनीतिक संकेत।
बिहार की राजनीति एक बार फिर गर्म हो गई है। इस बार चर्चा का केंद्र बने हैं पूर्व सांसद और जन अधिकार पार्टी (JAP) के प्रमुख पप्पू यादव, जिन्हें हाल ही में दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और राहुल गांधी के साथ एक अहम बैठक में आमंत्रित किया गया। यह बैठक 2025 में होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव को लेकर रणनीति तय करने के लिए बुलाई गई थी।
पप्पू यादव का इस बैठक में शामिल होना महज एक औपचारिकता नहीं, बल्कि इसके गहरे राजनीतिक मायने निकाले जा रहे हैं। अब यह सवाल उठ रहा है कि क्या पप्पू यादव कांग्रेस के लिए एक राजनीतिक ‘जरूरत’ बन गए हैं, या फिर उन्हें शामिल करना गठबंधन की ‘मजबूरी’ है?
पप्पू यादव की मौजूदगी के राजनीतिक संकेत
दिल्ली में हुई इस हाई-लेवल बैठक में राज्य स्तर के प्रमुख नेताओं को शामिल नहीं किया गया, लेकिन पप्पू यादव को आमंत्रित किया गया। इससे स्पष्ट है कि कांग्रेस नेतृत्व उन्हें गंभीरता से ले रहा है। राहुल गांधी और खड़गे की मौजूदगी में हुई चर्चा में आगामी चुनावी समीकरणों और सीट शेयरिंग पर भी बात हुई।
पप्पू यादव ने खुद भी बैठक के बाद कहा कि उनका मकसद है “भाजपा को हराना और बिहार की जनता को एक बेहतर विकल्प देना।” इससे यह संकेत मिलते हैं कि वह कांग्रेस के साथ या उनके नेतृत्व वाले गठबंधन का हिस्सा बनने के लिए तैयार हैं।
क्यों है कांग्रेस को पप्पू यादव की ज़रूरत?
1. भूमिहार और यादव वोट बैंक में पकड़ – पप्पू यादव सीमांचल और कोसी इलाकों में अपनी मजबूत पकड़ रखते हैं, खासकर यादव और भूमिहार समुदायों में।
2. साफ-सुथरी छवि का प्रयास – पिछले कुछ वर्षों में पप्पू यादव ने जनहित के मुद्दों पर काम करके एक सामाजिक कार्यकर्ता की छवि बनाई है, जो युवा वोटर्स को भी आकर्षित कर सकती है।
3. तेजस्वी यादव से असहमति – कांग्रेस, राजद की अगुवाई वाले गठबंधन में कई बार दबाव महसूस करती है। ऐसे में पप्पू यादव को साथ लाना तेजस्वी के प्रभाव को संतुलित करने की कोशिश मानी जा सकती है।
मजबूरी क्यों बन सकते हैं पप्पू यादव?
बिहार में कांग्रेस का स्वतंत्र जनाधार कमजोर है, ऐसे में उन्हें क्षेत्रीय चेहरों की जरूरत है जो जमीन पर पार्टी को मजबूत कर सकें।
अगर पप्पू यादव अलग चुनाव लड़ते हैं, तो वोट कटने का खतरा रहेगा, जिससे महागठबंधन को नुकसान हो सकता है। इसलिए उन्हें साथ लेना एक रणनीतिक मजबूरी भी बन जाती है।
पप्पू यादव की कांग्रेस बैठक में उपस्थिति केवल एक आम राजनीतिक घटनाक्रम नहीं, बल्कि आने वाले चुनावों की रणनीति का संकेत है। यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में वह महागठबंधन का हिस्सा बनते हैं या अपनी शर्तों पर चुनावी मैदान में उतरते हैं।
फिलहाल इतना तय है कि बिहार की राजनीति में पप्पू यादव की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता चाहे वह कांग्रेस की जरूरत हो या मजबूरी।