
दिशोम गुरु शिबू सोरेन: झारखंड आंदोलन के महानायक की जीवनगाथा
झारखंड आंदोलन की नींव रखने वाले और आदिवासी समाज की आवाज़ बनने वाले दिशोम गुरु शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को झारखंड (तत्कालीन बिहार) के दुमका जिले के नेमरा गाँव में हुआ था। वे एक गरीब आदिवासी परिवार से ताल्लुक रखते थे और उनके पिता सोहोरे सोरेन एक कृषक थे।
शिबू सोरेन का बचपन अत्यंत कठिनाइयों में बीता। बाल्यकाल में ही उन्होंने अपने पिता को ज़मींदारों के अत्याचार के कारण खो दिया। उनके पिता की हत्या तब हुई जब उन्होंने आदिवासी किसानों के साथ ज़मींदारी शोषण के खिलाफ आवाज़ उठाई। इस घटना ने युवा शिबू के मन में आदिवासी अधिकारों और सामाजिक न्याय के लिए लड़ने की एक लौ जगा दी। यही प्रेरणा आगे चलकर उन्हें एक जननायक और आंदोलनकारी नेता के रूप में स्थापित करने वाली थी।
राजनीतिक सफर की शुरुआत और झारखंड आंदोलन
1960 के दशक में जब आदिवासी समाज को बार-बार शोषण, विस्थापन और अपमान का सामना करना पड़ रहा था, तब शिबू सोरेन ने “संथाल परगना” से अपने राजनीतिक – सामाजिक आंदोलन की शुरुआत की। उन्होंने आदिवासियों के हक और जंगल-जमीन की रक्षा के लिए संघर्ष शुरू किया।
1972 में उन्होंने “झारखंड मुक्ति मोर्चा” (JMM) की स्थापना की। यह पार्टी झारखंड राज्य की माँग के साथ-साथ आदिवासी समाज के हक, सम्मान, शिक्षा, रोजगार, और पहचान की लड़ाई की अग्रणी ताकत बन गई। दिशोम गुरु के नेतृत्व में हजारों आदिवासी सड़कों पर उतरे और झारखंड की स्वायत्ता की मांग ज़ोर पकड़ने लगी।
शिबू सोरेन को लोग प्यार से “दिशोम गुरु” कहने लगे — जिसका अर्थ है “जनजातियों का महान नेता”।
आंदोलन से संसद तक
शिबू सोरेन का पहला संसदीय चुनाव जीतना 1980 में हुआ, जब वे लोकसभा सांसद के रूप में चुने गए। इसके बाद वे 1989, 1991, 1996, 2002 (उपचुनाव), और 2004 में भी सांसद बने।
उन्होंने संसद के माध्यम से भी झारखंड राज्य की माँग को बार-बार उठाया। साथ ही आदिवासियों के लिए वनाधिकार, शिक्षा, आरक्षण, और भूमि सुधार जैसे मुद्दों को भी संसद में जोरदार ढंग से रखा।
झारखंड राज्य की स्थापना में भूमिका
15 नवंबर 2000 को जब झारखंड को बिहार से अलग कर एक स्वतंत्र राज्य के रूप में मान्यता मिली, तब उसमें शिबू सोरेन और उनके झारखंड मुक्ति मोर्चा का सबसे अहम योगदान था। यह केवल एक राजनीतिक जीत नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक, सामाजिक और ऐतिहासिक विजय थी।
झारखंड के गठन को एक जनांदोलन की परिणति के रूप में देखा गया, और इस आंदोलन का सबसे बड़ा चेहरा दिशोम गुरु शिबू सोरेन थे।
मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री के रूप में कार्यकाल
शिबू सोरेन तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री रहे:
1. 2 मार्च 2005 से 12 मार्च 2005 (बहुत अल्पकालीन)
2. 27 अगस्त 2008 से 18 जनवरी 2009
3. 30 दिसंबर 2009 से 31 मई 2010
इसके अलावा वे केंद्र सरकार में कोयला मंत्री भी रहे। लेकिन कुछ विवादों के कारण उन्हें पद छोड़ना पड़ा।
विवाद और न्यायिक प्रक्रिया
शिबू सोरेन का जीवन सिर्फ संघर्ष और विजय की कहानी नहीं, बल्कि कुछ विवादों और कानूनी मामलों से भी जुड़ा रहा। 1994 में शशि नाथ झा हत्याकांड में उन पर आरोप लगे, और उन्हें जेल भी जाना पड़ा। हालांकि, बाद में उन्हें साक्ष्य के अभाव में बरी कर दिया गया।
इन तमाम परिस्थितियों के बावजूद, उन्होंने कभी भी जनता से मुंह नहीं मोड़ा और जनता ने भी हर बार उन्हें अपना जननायक माना।
व्यक्तित्व और विरासत
शिबू सोरेन एक असाधारण जननेता थे जो बिना भाषण के भी जनसंपर्क से लोगों को प्रभावित करते थे। उनके भीतर आदिवासी जीवनशैली की सादगी, संघर्षशीलता, और सामूहिक भावना गहराई से रची-बसी थी।
उन्होंने सदा जमीन से जुड़कर काम किया, चाहे वे सांसद हों, केंद्रीय मंत्री हों, या मुख्यमंत्री। उनके जीवन का हर पहलू यह बताता है कि कैसे एक सामान्य आदिवासी युवक अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति, नेतृत्व कौशल और सामाजिक समर्पण से इतिहास रच सकता है।
उनकी पीढ़ी और राजनीतिक विरासत
उनके पुत्र हेमंत सोरेन भी झारखंड के मुख्यमंत्री बने और झारखंड मुक्ति मोर्चा के वर्तमान प्रमुख नेताओं में से एक हैं। शिबू सोरेन ने न सिर्फ एक राज्य की नींव रखी, बल्कि एक नई पीढ़ी को भी नेतृत्व सौंपा, जिसमें उन्होंने आदिवासी हितों को सर्वोपरि रखा।
दिशोम गुरु का अवसान (2025)
अगस्त 2025 में दिशोम गुरु शिबू सोरेन ने अंतिम साँस ली। उनके निधन से सिर्फ झारखंड ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण भारत ने एक ऐसा जननायक खो दिया, जिसने संविधान के दायरे में रहकर हज़ारों वर्षों से शोषित समाज को अधिकारों की रोशनी दी।
झारखंड राज्य में शोक की लहर दौड़ गई, हजारों की संख्या में लोग अंतिम दर्शन के लिए उमड़े। राज्य सरकार ने शोक दिवस की घोषणा की और राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें श्रद्धांजलि दी गई।
दिशोम गुरु शिबू सोरेन का जीवन संघर्ष, सेवा, नेतृत्व, और प्रेरणा की कहानी है। उन्होंने न सिर्फ एक राज्य को जन्म दिया, बल्कि एक पूरे समाज को पहचान, आत्मसम्मान और अधिकारों का एहसास कराया। वे हमेशा झारखंडवासियों के दिलों में रहेंगे — एक आंदोलनकारी, एक राजनीतिज्ञ, एक समाजसेवी और एक जननायक के रूप में।