
पहली बार भारतीय एक्वानॉट्स समुद्र में 5,000 मीटर नीचे गए:
नई दिल्ली। भारत ने गहरे समुद्री अन्वेषण के क्षेत्र में एक नया और ऐतिहासिक मुकाम हासिल किया है। पहली बार भारतीय एक्वानॉट्स (समुद्री वैज्ञानिक/गोताखोर) सफलतापूर्वक 5,000 मीटर की गहराई तक समुद्र में उतरे हैं। यह मिशन देश के महत्वाकांक्षी ‘समुद्रयान’ कार्यक्रम का अहम हिस्सा है, जिसके तहत स्वदेशी मानवयुक्त पनडुब्बी ‘मत्स्य 6000’ को अगले दो वर्षों में लॉन्च किया जाएगा। इस उपलब्धि ने भारत को उन चुनिंदा देशों की सूची में ला खड़ा किया है, जो इतने गहरे समुद्री क्षेत्रों में मानवीय मिशन भेजने में सक्षम हैं।
ऐतिहासिक गोता और तकनीकी तैयारी
इस मिशन के तहत भारतीय वैज्ञानिकों ने उच्च दबाव, अंधेरे और अत्यधिक ठंडे वातावरण में काम करने की क्षमता का प्रदर्शन किया। 5,000 मीटर की गहराई पर पानी का दबाव समुद्र तल पर वायुमंडलीय दबाव से लगभग 500 गुना अधिक होता है। इसके लिए अत्याधुनिक डीप सी प्रेशर चैंबर, विशेष गोताखोरी सूट, ऑक्सीजन आपूर्ति प्रणाली और संचार उपकरण का इस्तेमाल किया गया।
वैज्ञानिकों के अनुसार, यह अभ्यास ‘मत्स्य 6000’ के लॉन्च से पहले एक अहम परीक्षण था, जिससे गहरे समुद्र में सुरक्षा, जीवन-रक्षा प्रणालियों और संचार तकनीकों की जांच की गई।
‘मत्स्य 6000’—भारत की गहरे समुद्र की आंख
‘मत्स्य 6000’ एक विशेष प्रकार की मानवयुक्त पनडुब्बी होगी, जिसे राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान (NIOT) ने डिजाइन किया है। यह एक्वानॉट्स को 6,000 मीटर की गहराई तक ले जा सकेगी और 12 घंटे तक लगातार काम करने में सक्षम होगी। आपात स्थिति में यह 96 घंटे तक जीवन-रक्षा प्रणाली के जरिए क्रू को सुरक्षित रख सकेगी।
पनडुब्बी का बाहरी ढांचा विशेष प्रकार के टाइटेनियम अलॉय से बना है, जो गहरे समुद्र के दबाव को सहन कर सकता है। इसमें अत्याधुनिक लाइटिंग सिस्टम, कैमरे, सेंसर, मैकेनिकल आर्म्स और सैंपल कलेक्टर लगाए जाएंगे।
मिशन का उद्देश्य
‘समुद्रयान’ और ‘मत्स्य 6000’ का मुख्य उद्देश्य गहरे समुद्र में पॉलीमेटालिक नोड्यूल्स (तांबा, निकेल, कोबाल्ट, मैंगनीज जैसे धातुओं से भरपूर खनिज), समुद्री पारिस्थितिकी, और अज्ञात जैव-विविधता का अध्ययन करना है। ये खनिज भविष्य की हरित ऊर्जा तकनीकों के लिए बेहद जरूरी हैं, क्योंकि इनका इस्तेमाल बैटरी, सोलर पैनल और हाई-टेक मशीनों में होता है।
इसके साथ ही यह मिशन गहरे समुद्र के पारिस्थितिक तंत्र पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों का अध्ययन करेगा और भारत को समुद्री संसाधनों के सतत दोहन में अग्रणी बनाएगा।
वैज्ञानिकों और टीम की भूमिका
इस मिशन में भारत के शीर्ष वैज्ञानिक, इंजीनियर, और प्रशिक्षित एक्वानॉट्स शामिल हैं। टीम ने गहरे समुद्र में उतरने से पहले महीनों तक सिमुलेशन ट्रेनिंग ली, जिसमें पानी के अंदर उच्च दबाव और शून्य दृश्यता की परिस्थितियों में काम करना सिखाया गया।
गहरे समुद्र के अंधकारमय माहौल में, केवल विशेष लाइट्स और सेंसर की मदद से नेविगेशन संभव होता है। मिशन के दौरान वैज्ञानिकों ने समुद्र तल से खनिज नमूने, पानी के नमूने और माइक्रोबियल जीवन के संकेत इकट्ठा किए।
भारत की बढ़ती क्षमताएं
अभी तक अमेरिका, रूस, फ्रांस, चीन और जापान जैसे कुछ ही देश ऐसे हैं, जिन्होंने इतनी गहराई तक मानवयुक्त मिशन भेजे हैं। भारत का यह कदम न केवल वैज्ञानिक क्षमता का प्रमाण है, बल्कि समुद्री अर्थव्यवस्था (ब्लू इकोनॉमी) को बढ़ावा देने की दिशा में भी अहम है।
समुद्रयान कार्यक्रम को पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय द्वारा संचालित किया जा रहा है और इसके लिए सरकार ने लगभग 4,077 करोड़ रुपये का बजट स्वीकृत किया है।
आने वाले कदम
अब जबकि 5,000 मीटर की गहराई तक का परीक्षण सफल हो चुका है, अगले चरण में ‘मत्स्य 6000’ का समुद्री ट्रायल शुरू होगा। यह पनडुब्बी 2027 तक पूरी तरह तैयार होकर समुद्र में उतरेगी। ट्रायल के दौरान इसकी गति, नियंत्रण, और जीवन-रक्षा प्रणाली का परीक्षण किया जाएगा।
इसके साथ ही भारत गहरे समुद्री खनिजों के व्यावसायिक दोहन और अनुसंधान में नए युग की शुरुआत करेगा।
भविष्य की संभावनाएं और चुनौतियां
विशेषज्ञों का मानना है कि गहरे समुद्र में खनिज संपदा अपार है, लेकिन उसका दोहन पारिस्थितिक संतुलन को बिगाड़ सकता है। इसलिए भारत का जोर पर्यावरण-संवेदनशील खनन तकनीक विकसित करने पर है।
गहरे समुद्र में दबाव, तापमान और प्रकाश की चरम स्थितियों में काम करना मानव और मशीन, दोनों के लिए चुनौतीपूर्ण है। इसीलिए इस मिशन में सुरक्षा मानकों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जा रही है।
भारतीय एक्वानॉट्स का 5,000 मीटर की गहराई तक जाना केवल एक तकनीकी उपलब्धि नहीं, बल्कि यह भारत की वैज्ञानिक महत्वाकांक्षा, आत्मनिर्भरता और समुद्री शक्ति का प्रतीक है। ‘मत्स्य 6000’ का सफल प्रक्षेपण भारत को गहरे समुद्र की खोज और संसाधन विकास के क्षेत्र में विश्व के अग्रणी देशों की पंक्ति में खड़ा करेगा। आने वाले समय में यह मिशन न केवल विज्ञान और उद्योग के लिए, बल्कि पर्यावरण संरक्षण के लिए भी एक मील का पत्थर साबित हो सकता है।