अंग्रेजों ने भारत से 64 ट्रिलियन डॉलर कैसे लूटे:

अंग्रेजों ने भारत से 64 ट्रिलियन डॉलर कैसे लूटे:

नई दिल्ली। भारत पर लगभग 200 वर्षों तक चले ब्रिटिश शासन ने देश की अर्थव्यवस्था, समाज और संस्कृति को गहरे जख्म दिए। इतिहासकारों और अर्थशास्त्रियों के शोध के मुताबिक, इस दौरान ब्रिटेन ने भारत से करीब 64 ट्रिलियन डॉलर (आज के मूल्य के अनुसार) की संपत्ति लूटी। यह लूट केवल सोना-चांदी और नकदी तक सीमित नहीं थी, बल्कि इसमें कृषि, उद्योग, व्यापार और मानवीय संसाधनों का सुनियोजित दोहन शामिल था।

उद्योग और कारीगरी का विनाश

भारत कभी दुनिया के सबसे बड़े वस्त्र और हस्तशिल्प उत्पादक देशों में गिना जाता था। बंगाल का मलमल, बनारस की सिल्क और कश्मीर की शॉल यूरोप में अत्यधिक मांग में थे। लेकिन ब्रिटिश शासन ने भारतीय उद्योगों को खत्म करने के लिए कड़े और क्रूर कदम उठाए।

बुनकरों को मजबूर किया गया कि वे केवल ब्रिटिश मिलों के धागे और कपड़े का इस्तेमाल करें।

कई जगहों पर पारंपरिक बुनकरों के अंगूठे काटने जैसी घटनाएं दर्ज हुईं, ताकि वे हाथ से बुनाई न कर सकें और ब्रिटिश कपड़ा उद्योग को प्रतिस्पर्धा न मिले।

भारतीय वस्त्रों पर भारी टैक्स लगाए गए, जबकि ब्रिटिश कपड़ों पर टैक्स कम रखे गए, जिससे भारतीय बाजार ब्रिटिश माल से भर गया।

कृषि क्षेत्र में शोषण

अंग्रेजों ने ‘राजस्व वसूली’ की नई व्यवस्था लागू की, जिसमें किसानों से फसल के बजाय नकद कर वसूला जाने लगा। इससे किसानों को महाजनों से ऊंचे ब्याज पर कर्ज लेना पड़ा।

नील की जबरन खेती: ब्रिटिश व्यापारियों ने किसानों को मजबूर किया कि वे खाने वाली फसलों के बजाय नील उगाएं, जिसे यूरोप में रंगाई के लिए भेजा जाता था।

चाय, कपास और अफीम जैसी नकदी फसलों की जबरन खेती ने अनाज उत्पादन घटा दिया, जिससे अकाल की स्थिति बनी।

1770, 1876-78 और 1943 के भीषण अकालों में करोड़ों लोग मारे गए। अकेले बंगाल के 1943 के अकाल में लगभग 30 लाख लोग भूख और बीमारी से मर गए।

कर व्यवस्था और अकाल

ब्रिटिश शासन में कर वसूली का तरीका इतना निर्दयी था कि अकाल या प्राकृतिक आपदा के समय भी कर वसूला जाता था।

1876-78 के मद्रास और बॉम्बे प्रेसीडेंसी के अकाल में अनुमानित 50 लाख लोग मारे गए, जबकि उस समय भारत से अनाज ब्रिटेन निर्यात किया जा रहा था।

अनुमान है कि ब्रिटिश शासन के 200 वर्षों में अकाल और भूखमरी से करीब 6 करोड़ भारतीयों की मौत हुई।

व्यापार में असमानता

ब्रिटेन ने भारत को कच्चा माल सप्लाई करने वाला और ब्रिटिश निर्मित वस्तुओं का बाजार बना दिया।

रेलवे, डाक और टेलीग्राफ जैसी परियोजनाएं मुख्य रूप से ब्रिटिश व्यापारिक हितों के लिए बनाई गईं, न कि भारतीय जनता के लिए।

कच्चा माल (जैसे कपास, अफीम, चाय) सस्ते दामों पर ब्रिटेन भेजा जाता था और वहां तैयार माल महंगे दामों में भारत में बेचा जाता था।

इस प्रणाली को “ड्रेन ऑफ वेल्थ” यानी धन की निकासी कहा गया, जिसका जिक्र दादाभाई नौरोजी ने अपने आर्थिक सिद्धांतों में किया।

अफीम व्यापार और चीन युद्ध

ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय किसानों से अफीम उगवाकर उसे चीन में बेचा, जिससे चीन में अफीम की लत और युद्ध की स्थिति बनी। भारत में इस अफीम व्यापार से ब्रिटिश राज को भारी मुनाफा हुआ, लेकिन भारतीय किसानों की जमीन और जीवन बर्बाद हो गए।

सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभाव

पारंपरिक शिक्षा प्रणाली को खत्म करके अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा थोपी गई, ताकि भारत में ऐसे क्लर्क और अफसर तैयार हों जो ब्रिटिश हितों की सेवा करें।

हस्तशिल्प, संगीत, नाट्यकला और साहित्य जैसे क्षेत्रों को आर्थिक सहारा नहीं मिला, जिससे वे कमजोर पड़ गए।

भारत की सामाजिक संरचना को बांटने के लिए ‘फूट डालो और राज करो’ की नीति अपनाई गई, जिसने हिंदू-मुस्लिम और जातीय आधार पर समाज में विभाजन पैदा किया।

64 ट्रिलियन डॉलर का अनुमान कैसे?

कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर उंगिता दत्ता और आर्थिक इतिहासकार उत्सा पटनायक के शोध के अनुसार, 1765 से 1938 के बीच ब्रिटेन ने भारत से लगातार आर्थिक संसाधनों का दोहन किया। यदि इस धन की उस समय की कीमत को आज के मूल्य में बदला जाए तो यह राशि करीब 64 ट्रिलियन डॉलर बैठती है। इसमें शामिल हैं:

कृषि और औद्योगिक उत्पादन का मूल्य

निर्यात में अधिशेष और आयात में घाटा

सोना-चांदी और नकदी की निकासी

ब्रिटेन में निवेश के लिए भारतीय राजस्व का उपयोग

ब्रिटिश शासन केवल राजनीतिक गुलामी नहीं, बल्कि एक सुनियोजित आर्थिक लूट थी। इसने भारत को दुनिया की सबसे समृद्ध अर्थव्यवस्था से गरीब और पिछड़े देश में बदल दिया। 1947 में आजादी मिलने तक भारत की प्रति व्यक्ति आय दुनिया में सबसे निचले स्तर पर थी और औद्योगिक उत्पादन भी बुरी तरह गिर चुका था।

अंग्रेजों की यह लूट सिर्फ पैसों में नहीं मापी जा सकती — यह करोड़ों जिंदगियों, टूटे उद्योगों, बर्बाद कृषि और खोई हुई सांस्कृतिक धरोहर की कीमत थी, जिसे भारत ने अपनी पीढ़ियों तक महसूस किया।

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