
दो मंत्रियों के फोन और धनखड़ का इस्तीफा: पद छोड़ने की असल वजह क्या है?
नई दिल्ली ब्यूरो।
देश के उपराष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के अचानक इस्तीफे से सियासी गलियारों में हलचल मच गई है। इस्तीफे की टाइमिंग और इसके पीछे की वजहों को लेकर तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं। एक ओर जहां विपक्ष ने इसे “लोकतंत्र पर दबाव की राजनीति” बताया है, वहीं सरकार की ओर से अब तक कोई औपचारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है। सूत्रों के मुताबिक, जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव पर विपक्ष की ओर से दिए गए नोटिस को स्वीकार करने के बाद ही यह पूरा विवाद शुरू हुआ। बताया जा रहा है कि इसी फैसले के बाद दो वरिष्ठ मंत्रियों ने धनखड़ को फोन किया, और फिर राजनैतिक दबाव की एक शृंखला चली, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने अपना पद त्यागने का निर्णय लिया।
महाभियोग प्रस्ताव बना कारण?
पूरे घटनाक्रम की शुरुआत विपक्ष द्वारा दिल्ली हाईकोर्ट के एक न्यायाधीश — जस्टिस यशवंत वर्मा — के खिलाफ लाए गए महाभियोग प्रस्ताव से होती है। संविधान के अनुच्छेद 124(4) और 217 के तहत न्यायाधीशों के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया का उल्लेख किया गया है। विपक्षी दलों ने इस प्रस्ताव में कुछ गंभीर आरोप लगाए थे, जिनमें न्यायिक आचरण, निष्पक्षता और न्यायिक प्रक्रिया में पक्षपात जैसे मुद्दे शामिल थे।
बतौर राज्यसभा के सभापति, जगदीप धनखड़ के पास यह अधिकार होता है कि वे इस तरह के प्रस्तावों को प्रारंभिक स्तर पर जांचने के बाद स्वीकार या अस्वीकार करें। उन्होंने संविधान के दायरे में रहते हुए इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और इसे संसद की प्रक्रिया में आगे बढ़ाने के लिए कदम उठाए। यही निर्णय उनके इस्तीफे की पृष्ठभूमि बना।
दो मंत्रियों के फोन कॉल से बढ़ा विवाद
सूत्रों का दावा है कि जब यह फैसला सार्वजनिक हुआ, तो केंद्र सरकार के दो वरिष्ठ मंत्रियों ने उपराष्ट्रपति धनखड़ को फोन किया। इन कॉल्स में महाभियोग प्रस्ताव स्वीकारने को लेकर असहमति जताई गई और इसे “राजनीतिक रूप से संवेदनशील” बताया गया। कहा जा रहा है कि फोन कॉल के दौरान धनखड़ से यह भी अपेक्षा की गई कि वे इस निर्णय पर पुनर्विचार करें।
धनखड़ एक वरिष्ठ कानूनी विशेषज्ञ रहे हैं और संविधान के जानकार माने जाते हैं। इसीलिए उन्होंने किसी भी राजनीतिक दबाव में न आकर संसद की प्रक्रिया को प्राथमिकता दी। लेकिन इसके बावजूद राजनीतिक दबाव बढ़ता गया।
बिजनेस एडवाइजरी कमेटी की बैठक में अनुपस्थिति
इस पूरे घटनाक्रम के बाद जब राज्यसभा की बिजनेस एडवाइजरी कमेटी की बैठक बुलाई गई, तो उसमें सत्ताधारी दल के प्रमुख नेता और मंत्री शामिल नहीं हुए। यह एक असामान्य स्थिति थी, क्योंकि यह कमेटी संसद की कार्यसूची तय करने के लिए अहम मानी जाती है। जानकारों का कहना है कि इस बहिष्कार का सीधा संदेश था कि धनखड़ के फैसले से सरकार नाराज है।
धनखड़ इस स्थिति से आहत हुए। संवैधानिक दायित्वों को निभाने के बावजूद जिस तरह से उनके फैसले को असहयोग और दबाव का सामना करना पड़ा, उसने उन्हें अंततः यह बड़ा कदम उठाने को मजबूर कर दिया।
विपक्ष ने बताया लोकतंत्र पर हमला
धनखड़ के इस्तीफे के तुरंत बाद कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी सहित कई विपक्षी दलों ने सरकार पर हमला बोला। कांग्रेस महासचिव जयराम रमेश ने ट्वीट कर कहा कि, “अगर एक संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति को स्वतंत्र निर्णय लेने की छूट नहीं है, तो यह लोकतंत्र की आत्मा पर सीधा हमला है।”
टीएमसी की सांसद महुआ मोइत्रा ने इसे “संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ साजिश” बताया। वहीं आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह ने कहा कि यह घटना बताती है कि सरकार अब न्यायपालिका तक को नियंत्रित करने की कोशिश कर रही है।
सरकार की चुप्पी और बढ़ते सवाल
अब तक केंद्र सरकार की ओर से इस पूरे घटनाक्रम पर कोई औपचारिक बयान नहीं आया है। प्रधानमंत्री कार्यालय या राज्यसभा सचिवालय की तरफ से भी इस्तीफे की पुष्टि के अलावा कोई विस्तार नहीं दिया गया है। इससे संदेह और भी गहरा गया है।
राजनीतिक विश्लेषक इसे भारतीय लोकतंत्र के लिए एक “संकेतात्मक मोड़” मान रहे हैं। उनका कहना है कि अगर संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्ति को स्वतंत्र कार्य करने की आज़ादी नहीं है, तो यह न केवल संस्थानों की निष्पक्षता को खतरे में डालता है, बल्कि आने वाले समय में लोकतंत्र के स्वरूप को भी बदल सकता है।
धनखड़ की चुप्पी, लेकिन संकेत स्पष्ट
जगदीप धनखड़ ने अपने इस्तीफे के बाद कोई सार्वजनिक बयान नहीं दिया है, लेकिन उन्होंने अपने पत्र में लिखा है कि “कुछ ऐसी परिस्थितियां बनीं, जिनमें पद पर बने रहना मेरे सिद्धांतों के विरुद्ध था।” यह वाक्य ही इस पूरी कहानी की गहराई को उजागर करता है।
धनखड़ एक तेजतर्रार वकील, पूर्व राज्यपाल और मुखर उपराष्ट्रपति के रूप में पहचाने जाते रहे हैं। उनका यह अचानक फैसला केवल एक व्यक्ति का त्याग नहीं है, बल्कि लोकतंत्र के भीतर उठ रहे संघर्षों की एक झलक भी है।
उपराष्ट्रपति जैसे संवैधानिक पद से दिया गया यह इस्तीफा सामान्य नहीं है। इसके पीछे की घटनाएं हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि क्या आज के समय में संवैधानिक संस्थाएं स्वतंत्र रूप से कार्य कर पा रही हैं? और अगर नहीं, तो इसका असर देश के लोकतांत्रिक भविष्य पर कितना गहरा हो सकता है? धनखड़ का यह त्याग संभवतः एक चेतावनी है—संस्थाओं की स्वायत्तता बचाने की।