
सोशल मीडिया बना ‘स्लीप चोर’: बच्चों की नींद, पढ़ाई और मानसिक स्वास्थ्य पर मंडरा रहा खतरा
● मोबाइल की स्क्रीन चमक के पीछे सो रहा है बचपन
● हर दिन बढ़ रहा है बच्चों में तनाव, चिड़चिड़ापन और अवसाद
● देर रात तक सोशल मीडिया स्क्रॉलिंग से बिगड़ रही है नींद की गुणवत्ता
नई दिल्ली।आज के डिजिटल युग में सोशल मीडिया एक ऐसा माध्यम बन चुका है जो न सिर्फ वयस्कों, बल्कि बच्चों और किशोरों के जीवन का भी अहम हिस्सा बन गया है। इंस्टाग्राम, यूट्यूब, व्हाट्सएप और स्नैपचैट जैसे प्लेटफॉर्म पर बच्चों की बढ़ती सक्रियता अब अभिभावकों और स्वास्थ्य विशेषज्ञों के लिए चिंता का विषय बन गई है। सवाल यह है कि क्या सोशल मीडिया बच्चों की नींद और मानसिक शांति पर बुरा असर डाल रहा है? विशेषज्ञों का जवाब साफ है— हां, और वह भी गंभीर स्तर पर।
सोशल मीडिया: ‘स्क्रॉलिंग’ की लत ने छीना सुकून
आज का बच्चा रात को सोने से पहले किताब नहीं, बल्कि मोबाइल स्क्रीन को गले लगाता है। कई रिपोर्ट्स और शोधों में खुलासा हुआ है कि किशोरों की एक बड़ी आबादी रात 12 बजे के बाद तक सोशल मीडिया पर सक्रिय रहती है। इसका सीधा असर उनकी नींद की गुणवत्ता और शारीरिक विकास पर पड़ता है।
विशेषज्ञों के अनुसार, बच्चों के शरीर को रोजाना औसतन 8 से 10 घंटे की नींद की जरूरत होती है। लेकिन सोशल मीडिया की लत उनकी स्लीप साइकिल को इस हद तक बिगाड़ देती है कि उनके शरीर और दिमाग को पर्याप्त विश्राम नहीं मिल पाता।
मानसिक स्वास्थ्य पर बढ़ता दबाव
लगातार ऑनलाइन रहने से बच्चों पर मानसिक दबाव भी बढ़ रहा है। कुछ प्रमुख दिक्कतें जो सोशल मीडिया के अत्यधिक इस्तेमाल से देखने को मिल रही हैं:
डिजिटल एंग्जायटी (चिंता):
बार-बार नोटिफिकेशन चेक करने की आदत, लाइक्स और कमेंट्स की चिंता।
FOMO (Fear of Missing Out):
दूसरों की लाइफ देखकर अपने को कम आंकना, जिससे आत्मविश्वास गिरता है।
सोशल कंपेरिजन:
इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म पर दिखने वाली “परफेक्ट लाइफ” से बच्चे खुद को असफल समझने लगते हैं।
डिजिटल अवसाद (Depression):
लगातार अकेलापन महसूस करना, आत्मग्लानि और मनोबल में गिरावट।
हार्मोनल बदलाव और ब्रेन एक्टिविटी पर असर
नींद के दौरान शरीर में मेलाटोनिन नामक हार्मोन बनता है, जो नींद लाने में सहायक होता है। लेकिन देर रात तक मोबाइल स्क्रीन से निकलने वाली नीली रोशनी (Blue Light) मेलाटोनिन के उत्पादन को बाधित करती है। इससे न सिर्फ नींद लेट होती है, बल्कि बीच में टूट भी जाती है।
एक अध्ययन के अनुसार, किशोरों में नींद की कमी से उनकी सीखने की क्षमता, ध्यान केंद्रित करने की शक्ति और स्मरण शक्ति पर बुरा असर पड़ता है।
छोटे बच्चों पर ज्यादा असर
अब सोशल मीडिया का जादू सिर्फ किशोरों तक सीमित नहीं रहा, बल्कि 8-10 साल के बच्चों तक भी पहुंच चुका है। कई बार अभिभावक ही बच्चों को शांत रखने के लिए मोबाइल थमा देते हैं, लेकिन यह आदत लंबे समय में नुकसानदायक सिद्ध होती है।
बच्चों में देखे जा रहे बदलाव:
खाने की आदतें बिगड़ना
शारीरिक गतिविधि में कमी
व्यवहार में आक्रामकता
आंखों में जलन, सिरदर्द
रिसर्च क्या कहती है?
एक वैश्विक रिपोर्ट में सामने आया है कि भारत में 13 से 18 वर्ष के बच्चों में औसतन 5 घंटे प्रतिदिन सोशल मीडिया उपयोग हो रहा है। वहीं अमेरिका की Sleep Foundation के अनुसार, सोशल मीडिया यूज करने वाले बच्चों में नींद से जुड़ी समस्याएं 50% ज्यादा देखने को मिलती हैं।
डॉक्टर्स और मनोवैज्ञानिकों की राय:
डॉ. सविता बंसल, चाइल्ड साइकोलॉजिस्ट कहती हैं, “सोशल मीडिया बच्चों को धीरे-धीरे एक आभासी दुनिया में ले जा रहा है, जहां वे खुद को अकेला महसूस करने लगते हैं। यह स्थिति आत्मघाती विचारों को जन्म दे सकती है।”
क्या करें अभिभावक?
समस्या को समझना और समय रहते समाधान निकालना बेहद जरूरी है। कुछ आसान लेकिन कारगर उपायों से बच्चों की डिजिटल आदतों को सुधारा जा सकता है:
1. डिजिटल डिटॉक्स:
हर सप्ताह एक दिन मोबाइल-फ्री रखने की आदत डालें।
2. सोने से 1 घंटा पहले गैजेट्स बंद करें:
बच्चों को ‘स्क्रीन फ्री टाइम’ की अहमियत समझाएं।
3. पुस्तकें और हॉबी की ओर लौटें:
पढ़ाई या खेलकूद के लिए प्रेरित करें।
4. पैरेंटल कंट्रोल ऐप्स का इस्तेमाल:
सोशल मीडिया यूसेज पर निगरानी रखें।
5. खुलकर बातचीत करें:
बच्चों की भावनाएं समझें और उन्हें अभिव्यक्ति का मौका दें।
सोशल मीडिया जहां एक ओर जानकारी का भंडार है, वहीं दूसरी ओर यह बच्चों की नींद, स्वास्थ्य और मानसिक संतुलन के लिए बड़ा खतरा बनता जा रहा है। अभिभावकों की सजगता और बच्चों के साथ संवाद ही इस डिजिटल जाल से उन्हें सुरक्षित रखने का सबसे बड़ा उपाय है। वक्त रहते सचेत होना जरूरी है, नहीं तो आने वाली पीढ़ी केवल स्क्रीन की दुनिया में जीती नजर आएगी, असल जीवन से कटी हुई।