
नेमरा का वह साधारण बालक, जिसने झारखंड को दी नई पहचान — दिशोम गुरु शिबू सोरेन की जीवनगाथा
रांची।झारखंड की राजनीति में अगर किसी एक नाम को संघर्ष, आत्मबल और आदिवासी स्वाभिमान का प्रतीक कहा जाए, तो वह नाम है — शिबू सोरेन, जिन्हें देश-दुनिया ‘दिशोम गुरु’ के नाम से जानती है। नेमरा गांव के एक सामान्य परिवार में जन्म लेने वाले इस बालक ने आगे चलकर जो इतिहास रचा, वह किसी महाकाव्य से कम नहीं। वे न सिर्फ झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के संस्थापक रहे, बल्कि तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री भी बने। उनके जीवन का हर अध्याय संघर्षों, आंदोलनों और जनसेवा की मिसाल है।
शुरुआती जीवन — संघर्षों से सजी जमीन
शिबू सोरेन का जन्म 11 जनवरी 1944 को झारखंड के बोकारो ज़िले (तत्कालीन बिहार) के नेमरा गांव में हुआ था। वे एक साधारण आदिवासी किसान परिवार से थे। बचपन में ही उन्होंने अपने पिता को ज़मींदारों के अत्याचार के खिलाफ लड़ते देखा। जब उनके पिता सोबरन सोरेन की हत्या ज़मींदारों ने कर दी, तब शिबू मात्र 10 साल के थे। यहीं से उनके भीतर सामाजिक अन्याय के खिलाफ जंग की चिंगारी भड़क उठी।
शिक्षा छोड़ समाज की राह पकड़ी
शिबू सोरेन पढ़ाई में होशियार थे, लेकिन पिता की हत्या और समाज में व्याप्त अन्याय ने उन्हें जल्दी ही स्कूल से बाहर कर दिया। वे लोगों की जमीन पर हो रहे अवैध कब्जों, आदिवासियों के शोषण और महाजनी प्रथा के खिलाफ मोर्चा खोलने लगे। इसी दौरान उन्होंने एक आंदोलन की नींव रखी, जो आगे चलकर झारखंड मुक्ति मोर्चा बना।
झारखंड मुक्ति मोर्चा की स्थापना
1972 में उन्होंने आधिकारिक रूप से झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की स्थापना की। इस संगठन ने तत्कालीन बिहार सरकार और केंद्र के खिलाफ अलग झारखंड राज्य की मांग को लेकर आंदोलन छेड़ दिया। आंदोलन के दौरान कई बार शिबू सोरेन को जेल जाना पड़ा, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। वे लगातार आदिवासी अस्मिता, जल-जंगल-जमीन और अधिकारों की बात करते रहे।
तीन बार मुख्यमंत्री, संसद में भी दमदार उपस्थिति
शिबू सोरेन तीन बार झारखंड के मुख्यमंत्री बने —
1. नवंबर 2005
2. अगस्त 2008
3. दिसंबर 2009
इसके अलावा उन्होंने केंद्रीय कोयला मंत्री के रूप में भी कार्य किया। संसद में भी उन्होंने आदिवासी मुद्दों, वन अधिकार और सामाजिक न्याय को पुरजोर तरीके से उठाया।
‘दिशोम गुरु’ — एक सम्मान, एक पहचान
आदिवासी समाज ने उन्हें ‘दिशोम गुरु’ का दर्जा दिया, जिसका अर्थ है — ‘जनजातीय समाज का गुरु या मार्गदर्शक’। यह नाम केवल एक सम्मान नहीं, बल्कि जनविश्वास का प्रतीक था। उन्होंने कभी पद और सत्ता को महत्व नहीं दिया, बल्कि हमेशा जनहित को सर्वोपरि रखा।
आंदोलन और अदालती संघर्ष
उनके राजनीतिक जीवन में कुछ विवाद भी जुड़े। 1994 में एक पुराने मामले में उनका नाम सामने आया, लेकिन उन्होंने हर बार कानूनी प्रक्रिया का सम्मान किया और निर्दोष साबित हुए। उनकी यही विशेषता रही कि उन्होंने कभी भी जनप्रतिनिधि की मर्यादा से समझौता नहीं किया।
आदिवासी राजनीति को दी नई धार
शिबू सोरेन ने झारखंड की राजनीति में ‘सामाजिक न्याय’ को केंद्र में रखा। उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि पारंपरिक आदिवासी संस्कृति, कौशल, भाषा और जीवनशैली को संरक्षित किया जाए। उन्होंने स्थानीय स्तर पर सशक्त पंचायत व्यवस्था, वन अधिकार अधिनियम और शिक्षा के अधिकार जैसे मुद्दों पर काम किया।
विरासत — जो आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा देती रहेगी
उनकी राजनीतिक विरासत को अब उनके पुत्र हेमंत सोरेन आगे बढ़ा रहे हैं, जो झारखंड के वर्तमान मुख्यमंत्री हैं। लेकिन शिबू सोरेन केवल एक राजनेता नहीं थे, वे एक विचार, एक आंदोलन और एक संघर्षशील आत्मा का नाम हैं।
निधन से उपजा शोक, पर प्रेरणा शेष
2025 में शिबू सोरेन के निधन की खबर जैसे ही आई, झारखंड ही नहीं बल्कि पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई। हजारों लोग उन्हें अंतिम विदाई देने पहुंचे। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री से लेकर आम जन तक ने उन्हें श्रद्धांजलि दी।
नेमरा का वह साधारण बालक आज हर झारखंडवासी के दिल में बसता है। शिबू सोरेन की जीवनगाथा यह सिखाती है कि अगर हौसले बुलंद हों और इरादे नेक, तो कोई भी राह नामुमकिन नहीं होती। उनकी संघर्ष-गाथा आने वाली पीढ़ियों को संविधान, समाज और संघर्ष के बीच संतुलन की प्रेरणा देती रहेगी।
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