
देश के जंगलों में खूंखार शिकारी अब सिर्फ शिकार के लिए ही नहीं, बल्कि खाल, हड्डियों, नाखून और यहां तक कि मूंछ के बाल तक बेचने के लिए जानवरों को मौत के घाट उतार रहे हैं। टाइगर और लेपर्ड की खाल करोड़ों के काले धंधे का हिस्सा बन चुकी है। हाल ही में की गई पड़ताल में यह खुलासा हुआ है कि टाइगर की खाल 10 लाख रुपए तक और लेपर्ड की खाल 5 लाख रुपए में खुलेआम बिक रही है। इतना ही नहीं, बाघ के मूंछ के बाल भी तंत्र-मंत्र और काले जादू के नाम पर तस्करों द्वारा लाखों में बेचे जा रहे हैं।
जंगली जानवरों के अंगों की अंतरराष्ट्रीय तस्करी
वन्यजीवों के अवैध व्यापार पर हुए खुलासे से यह साफ हो गया है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में बाघ और तेंदुए की मांग सबसे अधिक है। चीन, वियतनाम और थाईलैंड जैसे देशों में इनकी हड्डियों से बने पाउडर को दवा और ऊर्जा बढ़ाने वाली औषधि के रूप में बेचा जाता है। वहीं, खाल को महंगे शोपीस या कालीन बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
भारत में बाघ और तेंदुए की संख्या पहले ही तेजी से घट रही है। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972 के तहत इन जानवरों का शिकार करना और इनके अंगों की खरीद-बिक्री सख्त अपराध है, लेकिन इसके बावजूद तस्कर जंगलों से लेकर शहरों तक इस धंधे को चला रहे हैं।
कैमरे पर दरिंदों की करतूत
एक गुप्त ऑपरेशन के दौरान तस्करों ने खुद कैमरे पर यह कबूल किया कि उनके पास टाइगर की खाल, दांत, हड्डियां और मूंछ के बाल तक उपलब्ध हैं। पूछताछ में यह भी सामने आया कि टाइगर की खाल की कीमत 10 लाख रुपए तय की गई है, जबकि लेपर्ड की खाल 5 लाख रुपए में खरीदारों को दी जा रही है। तस्कर बताते हैं कि इन सामानों को मंदिरों, तांत्रिकों और विदेशों में भेजने के लिए डीलर तैयार रहते हैं।
टाइगर मूंछ के बाल क्यों हैं खास?
तांत्रिक मान्यताओं के अनुसार बाघ के मूंछ के बालों का प्रयोग वशीकरण और काला जादू में किया जाता है। कहा जाता है कि इन्हें जलाने पर विशेष ध्वनि निकलती है, जिससे तंत्र-मंत्र की शक्ति बढ़ती है। यही कारण है कि मूंछ के एक-एक बाल तक की कीमत हजारों रुपए लगाई जाती है। यह अंधविश्वास तस्करों के लिए सबसे बड़ा हथियार बन चुका है।
वन्यजीवों पर मंडरा रहा संकट
भारत में प्रोजेक्ट टाइगर और विभिन्न संरक्षण योजनाओं के बावजूद शिकारी सक्रिय हैं। 2024 की रिपोर्ट के अनुसार:
पिछले 10 सालों में 700 से ज्यादा टाइगर अवैध शिकार में मारे गए।
तेंदुओं की स्थिति और भी खराब है; पिछले 5 सालों में 1200 से ज्यादा लेपर्ड शिकारियों के हाथों मौत के शिकार हुए।
कई राज्यों में विशेष टास्क फोर्स बनाकर तस्करों पर नकेल कसने की कोशिश हो रही है, लेकिन जंगलों के बड़े हिस्से में अभी भी गैंग सक्रिय हैं।
कानून तो सख्त, पर तस्कर बेखौफ
भारत का वन्यजीव संरक्षण अधिनियम स्पष्ट रूप से कहता है कि बाघ, तेंदुआ और इनके अंगों की तस्करी पर 7 साल की सजा और 25 लाख रुपए तक जुर्माना हो सकता है। लेकिन समस्या यह है कि कानून का डर तस्करों में नजर नहीं आता। इनकी सप्लाई चेन गांवों से शुरू होकर बड़े शहरों और अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क तक जुड़ जाती है।
सरकार और एजेंसियों की चुनौती
वन विभाग, पुलिस और वाइल्डलाइफ क्राइम कंट्रोल ब्यूरो (WCCB) लगातार प्रयास कर रहे हैं। कई बार रेड और छापों में खाल, हड्डियां और अंग पकड़े भी गए हैं। लेकिन जिस तेजी से डिमांड बढ़ रही है, उसी तेजी से तस्करों की हिम्मत भी बढ़ रही है।
2023 में मध्यप्रदेश से एक बार में 5 टाइगर की खालें बरामद हुईं।
राजस्थान और उत्तराखंड में भी कई बार शिकारी गिरोह पकड़े गए।
उत्तर-पूर्व भारत से होकर नेपाल और चीन तक सप्लाई चैन फैली हुई है।
समाधान क्या है?
विशेषज्ञों का मानना है कि सिर्फ कानून से ही यह धंधा खत्म नहीं होगा। अंधविश्वास और तंत्र-मंत्र के नाम पर चल रही डिमांड को रोकना जरूरी है। जब तक लोग मूंछ के बाल, हड्डियां और खाल खरीदना बंद नहीं करेंगे, तब तक शिकारी शिकार करना बंद नहीं करेंगे।
साथ ही,
स्थानीय ग्रामीणों को संरक्षण अभियान में जोड़ा जाए।
आधुनिक तकनीक जैसे ड्रोन सर्विलांस और ट्रैप कैमरे बढ़ाए जाएं।
स्कूल और कॉलेज स्तर पर वन्यजीव संरक्षण की जागरूकता बढ़ाई जाए।
टाइगर और लेपर्ड सिर्फ भारत की शान ही नहीं, बल्कि हमारी पारिस्थितिकी के अहम हिस्से हैं। इनके बिना जंगलों का संतुलन बिगड़ जाएगा। लेकिन आज ये शिकारी गैंग्स के लिए सिर्फ 10 लाख और 5 लाख की कीमत भर रह गए हैं। खाल और मूंछ के बाल तंत्र-मंत्र की भेंट चढ़ रहे हैं। जरूरत है कि समाज इस काले धंधे के खिलाफ खड़ा हो और सरकार सख्त कार्रवाई करे। तभी बाघ और तेंदुए आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रह पाएंगे।