
नवरात्रि के पावन अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने त्रिपुरा के ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व वाले उदयपुर में पुनर्विकसित माता त्रिपुर सुंदरी मंदिर का उद्घाटन किया और माता की पूजा-अर्चना की। यह मंदिर न केवल त्रिपुरा बल्कि पूरे भारतवर्ष के प्रमुख तीर्थ स्थलों में गिना जाता है। माता त्रिपुर सुंदरी का यह धाम 51 शक्तिपीठों में से एक है और इसका धार्मिक व सांस्कृतिक महत्व अत्यधिक है।
मंदिर कहां स्थित है?
त्रिपुर सुंदरी मंदिर त्रिपुरा राज्य के गोमती जिले के उदयपुर शहर में स्थित है। यह राजधानी अगरतला से लगभग 55 किलोमीटर की दूरी पर है। मंदिर का वातावरण दिव्य और पवित्र माना जाता है, जहां हर साल लाखों श्रद्धालु दर्शन और पूजा के लिए पहुंचते हैं।
कब और किसने बनवाया था?
इतिहासकारों और मान्यताओं के अनुसार, त्रिपुर सुंदरी मंदिर का निर्माण वर्ष 1501 ईस्वी में त्रिपुरा के तत्कालीन महाराजा धन्य माणिक्य ने करवाया था। उन्होंने इस मंदिर को एक प्रमुख शक्ति उपासना केंद्र के रूप में स्थापित किया। तब से यह मंदिर उत्तर-पूर्व भारत के सबसे प्राचीन और पूजनीय शक्तिपीठों में शामिल हो गया।
मंदिर की खासियत
त्रिपुर सुंदरी मंदिर की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह 51 शक्तिपीठों में से एक है। मान्यता है कि जब भगवान विष्णु ने माता सती के शरीर के टुकड़ों को अपने सुदर्शन चक्र से विभाजित किया था, तब उनके दाहिने पैर की उंगलियां यहां गिरी थीं। इसी कारण यह स्थान शक्तिपीठ के रूप में पूजित हुआ।
मंदिर की वास्तुकला बंगाल शैली की झलक लिए हुए है, जिसमें देवी की प्रतिमा काले काष्ठ-पाषाण से बनी हुई है। यहां माता त्रिपुर सुंदरी की प्रतिमा लगभग 5 फीट ऊंची है और देवी को मां काली का स्वरूप भी माना जाता है।
हर साल यहां शारदीय नवरात्र और दीवाली के अवसर पर भव्य मेले का आयोजन होता है, जिसमें दूर-दराज से श्रद्धालु आते हैं। इसके अलावा यह मंदिर त्रिपुरा की सांस्कृतिक और धार्मिक परंपरा का जीवंत प्रतीक है।
धार्मिक महत्व
मान्यता है कि इस शक्तिपीठ में सच्चे मन से की गई प्रार्थना और पूजा से सभी कष्ट दूर हो जाते हैं और जीवन में सुख, समृद्धि और शांति की प्राप्ति होती है। इस मंदिर को न केवल शक्ति साधना का केंद्र माना जाता है बल्कि यहां की ऊर्जा भक्तों को अध्यात्म और भक्ति में डुबो देती है।
इस लेख में दी गई जानकारी ऐतिहासिक और धार्मिक मान्यताओं पर आधारित है। इसका उद्देश्य केवल सामान्य जानकारी देना है। यहां वर्णित तथ्यों की कोई वैज्ञानिक पुष्टि नहीं है। पाठकों से निवेदन है कि इसे केवल आस्था और परंपरा के रूप में ही देखें।