
*’तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें डिग्री दूंगी’, इस यूनिवर्सिटी की फुटबॉल कोच क्यों बनी ‘वैम्पायर’?*
यह बेहद चौंकाने वाला मामला
ताइवान की एक यूनिवर्सिटी से सामने आया है, जिसने न सिर्फ शैक्षणिक माहौल पर सवाल खड़े किए हैं, बल्कि कोचिंग और अधिकार के दुरुपयोग की सीमाएं भी उजागर की हैं। सोशल मीडिया पर वायरल हो रही खबर के अनुसार, एक महिला फुटबॉल कोच झोउ ताई-यिंग पर आरोप है कि उन्होंने छात्राओं को ‘डिग्री’ देने के बदले जबरन ब्लड डोनेशन करने के लिए मजबूर किया।
मामला क्या है?
ताइवान की इस यूनिवर्सिटी में फुटबॉल टीम की कोच झोउ ताई-यिंग को लेकर एक छात्रा ने सोशल मीडिया पर सनसनीखेज आरोप लगाया। उसने कहा कि कोच ने उससे कहा –
“तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें डिग्री दूंगी”।
इस कथन ने जैसे आग में घी का काम किया। पोस्ट के वायरल होते ही कोच पर कई अन्य छात्राओं ने भी समान आरोप लगाए, जिससे यूनिवर्सिटी प्रशासन हरकत में आया और तुरंत कोच को बर्खास्त कर दिया।
छात्राओं पर दबाव कैसे डाला गया?
बताया जा रहा है कि कोच झोउ ने डिग्री या खेल प्रदर्शन की आड़ में छात्राओं से बार-बार खून देने की मांग की। छात्राओं का आरोप है कि यदि वे मना करतीं, तो उन्हें डिग्री मिलने में बाधा डाली जाती या यूनिवर्सिटी में उनका आकलन खराब कर दिया जाता।
कुछ छात्राओं ने बताया कि उन्होंने डर के मारे ब्लड डोनेशन किया, जबकि उन्हें इसकी कोई मर्जी नहीं थी।
सोशल मीडिया पर आक्रोश
जैसे ही ये मामला सामने आया, ट्विटर (अब X), फेसबुक और इंस्टाग्राम जैसे प्लेटफॉर्म्स पर लोग भड़क उठे। कई यूजर्स ने कोच को ‘वैम्पायर’ कहकर ट्रोल किया और विश्वविद्यालय प्रशासन की भूमिका पर भी सवाल उठाए – आखिर इतने समय तक यह सब कैसे चलता रहा?
यूनिवर्सिटी की कार्रवाई
प्रशासन ने तत्काल प्रभाव से कोच को बर्खास्त कर दिया है और मामले की जांच के आदेश दे दिए गए हैं। विश्वविद्यालय ने यह भी कहा है कि “छात्रों की मर्जी के बिना किसी भी प्रकार का ब्लड डोनेशन अनैतिक और अस्वीकार्य है।”
कानूनी पहलू
ताइवान में ब्लड डोनेशन पूरी तरह स्वैच्छिक होता है और किसी भी प्रकार की जबरदस्ती कानूनन अपराध मानी जाती है। इस केस में यदि छात्राओं के आरोप सही साबित होते हैं, तो कोच झोउ ताई-यिंग को न केवल नौकरी से हाथ धोना पड़ा है, बल्कि कानूनी कार्रवाई का भी सामना करना पड़ सकता है।
क्यों गंभीर है यह मामला?
यह केवल एक कोच द्वारा की गई जबरदस्ती नहीं है, बल्कि यह शिक्षा और अधिकारों के दुरुपयोग का मामला है।
इससे यह भी साफ होता है कि खेल संस्थानों में भी छात्रों की मानसिक और शारीरिक स्वतंत्रता पर हमले हो सकते हैं।
यह मामला यूनिवर्सिटी स्तर पर एथिकल गवर्नेंस की कमजोरियों को भी उजागर करता है।
एक शिक्षक या कोच का सबसे बड़ा दायित्व छात्रों की सुरक्षा और विकास सुनिश्चित करना होता है, न कि अपने निजी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए उनका खून चूसना। “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें डिग्री दूंगी” जैसी मानसिकता हमारे शैक्षणिक संस्थानों में नहीं, बल्कि किसी डिस्टोपियन फिल्म में फिट बैठती है। यह मामला चेतावनी है कि सिस्टम में निगरानी और जवाबदेही कितनी जरूरी है ।