
बिहार चुनाव में चंद्रशेखर की एंट्री, 100 सीटों पर आजाद समाज पार्टी उतारेगी उम्मीदवार — किसका बिगाड़ेगी खेल?
पटना।बिहार की सियासत में बड़ा उलटफेर करते हुए भीम आर्मी के प्रमुख और आजाद समाज पार्टी (कांशीराम) के राष्ट्रीय अध्यक्ष चंद्रशेखर आज़ाद ने आगामी विधानसभा चुनावों में अपनी पार्टी के दम पर उतरने का ऐलान किया है। उन्होंने स्पष्ट किया है कि उनकी पार्टी बिहार में 100 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। इस घोषणा ने राज्य की राजनीतिक बिसात पर हलचल मचा दी है, क्योंकि यह एंट्री महागठबंधन और एनडीए—दोनों के लिए चुनौती बन सकती है।
चंद्रशेखर का ऐलान और उद्देश्य
चंद्रशेखर आज़ाद ने प्रेस वार्ता में कहा,
> “बिहार में दलित, पिछड़े और अल्पसंख्यक लंबे समय से राजनीतिक रूप से इस्तेमाल किए जाते रहे हैं, लेकिन अब उन्हें नेतृत्व मिलेगा। आजाद समाज पार्टी जनता को विकल्प देगी, समझौता नहीं करेगी।”
चंद्रशेखर का यह बयान साफ संकेत देता है कि वे महागठबंधन या एनडीए में किसी के साथ नहीं बल्कि स्वतंत्र रूप से चुनावी मैदान में उतरने को तैयार हैं।
सामाजिक समीकरणों पर असर
बिहार में दलितों की संख्या लगभग 16% है, जिसमें महादलित वर्ग का भी बड़ा हिस्सा है। खासकर पासी, धोबी, चमार जैसी जातियों में चंद्रशेखर की लोकप्रियता बढ़ी है। ऐसे में यह तय है कि अगर आजाद समाज पार्टी इन तबकों में पकड़ बनाती है, तो राजद, कांग्रेस और वाम दलों को नुकसान उठाना पड़ सकता है जो अब तक इन वोटों को अपने कोर बेस मानते रहे हैं।
वहीं भाजपा-जदयू गठबंधन के लिए भी खतरे की घंटी है क्योंकि महादलित वोट बैंक नीतीश कुमार की राजनीतिक रणनीति का एक अहम स्तंभ रहा है। अब यह वोट खिसकता है तो एनडीए की सीटों पर भी असर पड़ सकता है।
किसका कितना नुकसान?
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि चंद्रशेखर की एंट्री सीधे-सीधे राजद-कांग्रेस गठबंधन को ज्यादा नुकसान पहुंचा सकती है। क्योंकि इन दलों का वोट बैंक भी पिछड़े, दलित और मुस्लिम समुदाय पर आधारित रहा है। हालांकि अगर आजाद समाज पार्टी मुस्लिम-दलित गठजोड़ की दिशा में सफल हुई, तो यह गठबंधन की रणनीति को ही पलट सकता है।
वहीं भाजपा के लिए यह फायदा भी हो सकता है कि विपक्ष का वोट बंटे और त्रिकोणीय मुकाबले में उन्हें कुछ सीटें मिल जाएं जहां वे सामान्यतः कमजोर मानी जाती रही हैं।
युवा चेहरा, नई उम्मीद?
चंद्रशेखर आज़ाद की छवि एक युवा, तेज-तर्रार और सिस्टम से टकराने वाले नेता की रही है। उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से निकले इस नेता ने जातीय शोषण, दलित उत्पीड़न और आरक्षण के मुद्दों पर लगातार मुखरता दिखाई है। बिहार के युवा और शिक्षा वर्ग में उनकी लोकप्रियता तेजी से बढ़ी है, खासकर उन इलाकों में जहां जातीय अन्याय की घटनाएं ज्यादा देखने को मिलती हैं।
2020 के बिहार चुनाव में भले ही आजाद समाज पार्टी ने सीधी भागीदारी नहीं की थी, लेकिन इस बार पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरने की तैयारी है।
गठबंधन से दूरी, ‘स्वतंत्र विकल्प’ पर ज़ोर
चंद्रशेखर आज़ाद का यह भी कहना है कि उनकी पार्टी किसी जाति या मज़हब विशेष की राजनीति नहीं करती, बल्कि संविधान और बहुजन हितों को प्राथमिकता देती है। उन्होंने साफ किया कि “हम किसी पार्टी की बी-टीम नहीं हैं, हम खुद विकल्प हैं। बिहार की जनता को अब तीसरा रास्ता मिलेगा।”
इस बयान के बाद यह सवाल उठ रहा है कि क्या बिहार में 2025 का चुनाव पारंपरिक गठबंधनों के बीच नहीं, बल्कि त्रिकोणीय या चतुष्कोणीय मुकाबले में तब्दील हो जाएगा?
विपक्षी दलों की चिंता बढ़ी
राजद और कांग्रेस की तरफ से अब तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि चंद्रशेखर की एंट्री ने दलित वोट बैंक को लेकर पार्टी के भीतर गंभीर चिंतन शुरू कर दिया है। विशेषकर सीमांचल और मगध क्षेत्रों में, जहां मुस्लिम और दलित आबादी ज्यादा है, वहां पर आजाद समाज पार्टी प्रभाव डाल सकती है।
क्या चंद्रशेखर बन पाएंगे ‘किंगमेकर’?
हालांकि 100 सीटों पर लड़ना अपने आप में एक बड़ी रणनीतिक चुनौती है—चुनाव खर्च, संगठन, उम्मीदवारों का चयन और बूथ मैनेजमेंट जैसे विषयों पर पार्टी को बड़ी मेहनत करनी होगी। लेकिन अगर आजाद समाज पार्टी 10 से 15 सीटों पर भी असर डालने में कामयाब होती है, तो वह ‘किंगमेकर’ की भूमिका में आ सकती है।
बिहार की राजनीति में चंद्रशेखर आजाद की इस नई भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। आजाद समाज पार्टी की एंट्री से जहां दलित राजनीति को नई धार मिल सकती है, वहीं यह चुनावी गणित को पूरी तरह से बदलने वाला फैक्टर साबित हो सकता है।
अगले कुछ महीनों में यह देखना रोचक होगा कि चंद्रशेखर की पार्टी संगठनात्मक रूप से कितनी मजबूत होती है और क्या वह उन वर्गों को एकजुट कर पाएगी, जो लंबे समय से नेतृत्व की तलाश में हैं।